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रविवार, 17 जुलाई 2022

बुढ़ापा !( घनाक्षरी)

फूलने लगा है सांस,झूलने लगा है मांस,
लगता है जवानी का, जोश गिर गया है।
पूरे हुए सत्तर साल,थोड़ी कम हुई चाल,
बैठे बैठे खाने का ये मौक़ा आ ही गया है।

आ गया है वृद्धापन, हुआ कमजोर तन,
रोगों  से बुढ़ापा अब, तन  घिर गया  है।
कल तक घूमते थे,आगे  पीछे बाबू मेरे,
अब हर  बाबू मेरा ,नाम  भूल  गया  है।

बढ़ जाए उम्र भले,सदा वो निरोगी रहे,
समझो ये प्रेम बर,  दान  मिल  गया है।
खान-पान पर ध्यान,रहा जिसका समान,
व्यसनों से दूर सब,  ज्ञान मिल  गया है।

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