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शनिवार, 14 मई 2022

मैंऔर चंदा

मेरी धरती चांद गगन की दोनों दूर अमन में।
रोज निहारू मैं उसको महके फूल चमन में।
चंदा की शीतल चादनी फैलाती जबआंचल।
लिखने को देती हैअपनी आँखों से काजल। 

इसी काजल से लिख लेते हैं नये कोई गीत।
जीवन की इस धारा में बहती  मन की प्रीत।

मुझे धरा पर चंदा की शीतल चांदनी भाती।
शुक्ल पक्ष की चंदा दूध में नहा कर आती।
सोलह कलाऐं हैं उसकी च॔दा रोज बदलती।
अमावस से चंदा खुद सजती और संभलती।

इसी चांदनी में मन खोजे अपने मन का मीत।
नये स्वरों में मिलकर गाते वो नये मन के गीत।

कांटों से डरो नहीं

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