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शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2020

भोर होने दो***(पी )


"""""""भोर होने दो """"""
मैं मजदूर हूँ बेशक,राह के पत्थर तोड़ने दो।
अन्धेरी बस्तियों में भी, थोड़ा भोर होने दो।
जाग कर फिर पंख, फड़ फड़ायेंगी पंछियां,
उजालों में उनको भी तो,पंख अपने धोने दो।

भला सन्नाटे का शहर,किसे अच्छा लगता है।
जहां अंधेरे में आदमी सौ बार गिर पड़ता है।
चाहता तो है वो भी उड़ना,स्वच्छंदआसमां में,
पर उजालों के लिए उसे दम भरना पड़ता है।

गुनगुनाता है गीत वो,जो गाये कभी जमाने में।
सूरत देख कर डरता है,खड़े सामनेआयने में।
मेहरबानी बड़ी हुई हम पर,अम्बेेेडकर जी की,
जिनकी जिन्दगी बीती,वक्त के चेहरे तराशने में।

शिल्पी का हथौड़ा हूँ, तोड़ दूंगा राह के पत्थर।
गुजरेंगे लोग राहों से ,समतामय बन्धुत्व लेकर।
मेरा यह प्रबुद्ध भारत, ये नया खुशहाल भारत-
होगा समृद्धशाली फिर , बुद्ध का संदेश देकर।


कांटों से डरो नहीं

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