उल्लू! यह कहकर उसने -
मुझको सम्बोधित किया।
उसके इस मृदुभाषी सम्बोधन से ,
मेरा थोड़ा रक्तचाप बढ़ गया।
कुछ देर बाद स्वतःही उतर गया।
लेकिन यह एक सवाल !
मेरा अन्तर्द्वन्द बन गया।
जो बार बार मुझे चुनौती देता,
और मैं उत्तर खोजने लगता।
मैं शिल्पकार हूँ।
उजालों से क्यों डरता हूँ ?
पेट भरने को कमाता हूँ।
शिल्पकार बताने में क्यों घबराता हूँ ?
संघर्ष करने से क्यों कतराता हूँ ?
इत्यादि................
उलूक की तरह मुझे भी,
लक्ष्मी का वाहन समझा जाता है ।
चुनावी बैनरों में सजाया जाता है ।
दो चार नारीयल भेंट कर ,
मेरा गुणगान गाया जाता है।
मैं उल्लू ही बना रहता हूँ।
पर अब मैं उल्लू नहीं बनूँगा।
शिक्षित बनूँगा। संगठित रहूँगा।
उजाले से लड़ूँगा।मैं संघर्ष करूंगा।