यह ब्लॉग खोजें

रविवार, 19 अप्रैल 2020

# उल्लू का.....

उल्लू! यह कहकर उसने -
मुझको सम्बोधित किया।
उसके इस मृदुभाषी सम्बोधन से ,
मेरा थोड़ा रक्तचाप बढ़ गया।
कुछ देर बाद स्वतःही उतर गया।
लेकिन यह एक सवाल !
मेरा अन्तर्द्वन्द बन गया।
जो बार बार मुझे  चुनौती देता,
और मैं उत्तर खोजने लगता।
मैं शिल्पकार हूँ।
उजालों से क्यों डरता हूँ  ?
पेट भरने को कमाता हूँ।
शिल्पकार बताने में क्यों घबराता हूँ ?
संघर्ष करने से क्यों कतराता हूँ ?
 इत्यादि................ 
उलूक की तरह मुझे भी,
लक्ष्मी का वाहन समझा जाता है ।
चुनावी बैनरों में सजाया जाता है ।
दो चार नारीयल भेंट कर ,
मेरा गुणगान गाया जाता है।
मैं उल्लू ही बना रहता हूँ।
पर अब मैं उल्लू नहीं बनूँगा।
शिक्षित बनूँगा। संगठित रहूँगा।
उजाले से लड़ूँगा।मैं संघर्ष करूंगा।






कोई टिप्पणी नहीं:

कांटों से डरो नहीं

फूलों का गर शौक हैतो  काटों से डर कैसा। इरादा मजबूत हैतो  ख्याल ये मुकद्दर कैसा। कभी धूप कभी छांव रहा करती जिन्दगी में, साथ न हो हमसफ़र का त...