देखता हूँ भीड़ में खो गया कहीं आदमी।
गांव में भी देखा वहाँ कोई नहीं आदमी,
जातियाँ के खूँटे से है बधा हुआआदमी।
ज़िन्दगी ही बीत गई यूँ ढूँढने में आदमी,
लग रहा जैसे चांद खुद ढ़ूढ रहा चांदनी।
ऐसा हाल दुनिया का जहां बसा आदमी,
भगवान के नाम से ही माल लूटेआदमी।
धरम के नाम पर गुलाम बना आदमी,
पाखंड के छल से भगवान बनाआदमी।
वासना में डूब कर शैतान बना आदमी,
नैतिकता से हमेशा महान बना आदमी।
निकला हूँ घर से तलाशता हूँ आदमी।
देखता हूँ दासता में रहता है आदमी।
कहने में सच झूठ बोलता है आदमी।
बिकता है मोल तोलता नहीं आदमी।
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