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सोमवार, 30 जुलाई 2018

# बरषने दो(53)

बरषने दो बादलों को आज जी भरकर ।
आने दो हवाओं को थोड़ा तूफान बनकर।
हम भी देखते हैं कितना दम है इनमेंआज,
खड़े हैं हम भी यहाॅ अपना  सीना तानकर।
                जानते हैं बादल दो-चार दिन बरसेंगे।
                इनको हवायें कहीं उड़ाकर ले जायेंगे।
                छोड़ जायेंगे जमीं अपनी खामोशियां।
                हम ही उनको खुशियाॅ लौटाने आयेंगे।
बादल नहीं होते, मगर झुलसाती गर्मियां-
होती ,ये हाड़ कपकपाने वाली वो सर्दियां। 
सीख लेते हैं बादलों से उड़ना आसमां में,
छोड़कर आ गये हैं जो अपनी हठधर्मियां।
               बहुत देखा है हमने भी बादलों का फटना।
               लोगों काअन्धेरों से भरे  राहों में भटकना ।
               मगर सम्भलते हैं अपनी राहों में वो अक्षर-
               जो भिज्ञ हैं जीवन में स्वयं सन्तुलन रखना।
               

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