गांव से अलग उस बस्ती में,
यह बेचारी कविता रहती है।
दुत्कार तिरस्कार अपमान -
वहां बहुत कुछ सहती है।
दुत्कार तिरस्कार अपमान -
वहां बहुत कुछ सहती है।
उसे विरासत में मिला कल,
एक अदद घर शीलन भरा।
परिवार समय में समा गया ,
पहले मां औरअब बाप मरा।
अब तो घर भी उजड़ गया,
अब तो घर भी उजड़ गया,
बस खाली चिंता है मन में।
रातों की सिलवट जैसे कुछ,
बिखरी हैं यादें आंगन में।
बस्ती की सीमा में अब तो,
पीपल का तरु उग आया।
काम से लौटा करती जब वो,
पाती है उस तरु से छाया।
इस तरुवर के नीचे प्रतिदिन,
वह अ आ क ख पढ़ती है।
अपने बस्ती के बच्चों के संग ,
वह मिलकर आगे बढती है।
उसने समय के साथ साथ,
पढना लिखना सीख लिया।
अपने मधुर स्वभाव से उसने,
लोगों का दिल जीत लिया।
आजादी की परिभाषा अब,
लोगों को समझाती है वह।
स्वतंत्रता अधिकार हमारा,
हर बच्चे को बतलाती है वह।
वह पढ़ती है वह लिखती है, -
हर हक की लड़ाई लड़ती है।
उस गांव से बाहर उस बस्ती में,
आज मेधावी कविता रहती है।
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