आग हैं छू नहीं सकते,
मगर प्यार इसके ताप से।
कितने काम की है आग,
जरा पूछिएअपनेआप से।
भष्म हो जातीआग में।
जात का अभिमान सारा,
मिल जाता है खाक में।
आग ही है सब कुछ यहां,
इसी पर तो हैं निर्भर।
छू नहीं सकते इसे हम,
ये है मेहरवां हम पर।
जब कपकपाती ठंड हो,
तब तन अकड़ता ठंड से।
बर्फ सी जमती परतें,
अकड़न भरी घमंड से।
बैठ कर पास इसके,
पिघलने लगती है परत।
जान लेते हैं अर्थ हम,
मिटाकर दिल से नफरत।
जलकर राख जब हो ,
बभूति माथे लगा लेते।
आस्थावान होकर हम,
डुबकी सागर में लगा लेते।
जब अछूत के पास जाओ,
ताप से नफरत मिटा लेना।
दर्प हो जाये राख तो तुम ,
बभूति को माथे लगा लेना।
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