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शुक्रवार, 8 अप्रैल 2022

मुक्तक

जागा है जो समय से फिर कहां रूका है वो।
मुसीबतें हजार हों फिर भी नहीं झुका है वो।
आदमी जो कर रहा है नव सृजन का प्रयास,
यही है उसकी श्रेष्ठता स्वयं बदल चुका है वो।

यहां प्रेम को मुकद्दर मान लेते हैंअक्सर लोग।
जब हार जाते हैं तो जान  देते हैंअक्सर लोग।
यह  प्रेम कोई जंग  नहीं है जहां जीत हार हो,
प्रेम तो एहसास है जिसे पहचान लेते हैं लोग। 

तुम झुककर उनको कब तक सलाम करोगे।
कमजोर हो कर खुद को यूंही बदनाम करोगे।
समय है सम्भलकर चलना कुछ सीख लीजिए,
कब तक जिंदगी में गुलामी काअपमान सहोगे।

देख कर निजअक्स शीशे में लगाआदमी सा हूँ।
जीवन की राह चलता मैं भी एक आदमी सा हूँ।
फिर क्यों यहां लोग मेरी पहचान को नकारते हैं,
तुम्हारी तरह मैं भी तो आदमी कुछ काम का हूँ।

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