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मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

#वंचित स्वर (51)

सर्द हवा हो या हो चिलचिलाती गरमी ,
बहाता निरन्तर पसीना खूब परिश्रमी।
मयस्सर नहीं उसको दो जून रोटी भी,-
फिरभी हौसलों में, नहीं होती कोई कमी।
            सूरत बदलना चाहते हैं, वे इस पहाड़ की,
            सामने खड़ी हैं उनकी, ये पीड़ पहाड़ सी।
            मालिक लपकते हैं,जौंक की तरह शहर में,
            जो अनवरत चूस रहे हैं,लहु उनके हाड़ की।
लाचार मेहनतकशों की,परवाह किसको पड़ी है?
उनके हकों की लड़ाई,अब तक किसने लड़ी है।
देखिए कुछ तो इधर, राजनीति की बदहाली को।
जिसका कतरा कतरा,जमीन पर बिखरी पड़ी है।
             यूं बुत की तरह खड़े रहना,अच्छा नहीं लगता।
             जंग में सिपाही का भागना,अच्छा नहीं लगता।
             कुछ तो सोचना होगा,देश के नव निर्माण के लिए,
             भीड़ में शामिल तमाशा देखना अच्छा नहीं लगता।

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